कृषि कानूनों से लेकर समान नागरिक संहिता तक के मामले में फर्जी नैरेटिव गढऩे वाले हो रहे हावी

 

हिंसा की इन घटनाओं के बहाने यह नैरेटिव गढ़ा ही जा रहा था कि मुसलमानों को सताने-डराने का अभियान छेड़ दिया गया है कि धार्मिक स्थलों में लाउडस्पीकर का मामला सामने आ गया। अपना शरारती एजेंडा चलाने वालों ने इसे भी लपक लिया और फिर उसे उलट दिया।
राजीव सचान। कश्मीरी हिंदुओं के दमन, उत्पीडऩ और जबरन निष्कासन पर बनी फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' को रिलीज हुए करीब दो माह होने वाले हैं, लेकिन उसके खिलाफ यह दुष्प्रचार अब तक जारी है कि वह मनगढ़ंत, एकपक्षीय और नफरत फैलाने वाली फिल्म है। इस तरह का ताजा आरोप खुद को ज्ञानकोश बताने वाली वेबसाइट विकिपीडिया ने लगाया है। इसके पहले इसी तरह के आरोप कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, नेशनल कांफ्रेंस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी आदि के बड़े नेता लगा चुके हैं। 

इन नेताओं के अलावा कई कथित बुद्धिजीवियों और फिल्म समीक्षकों ने भी यही काम किया है। ऐसा करने वालों में मीडिया का एक हिस्सा भी है। यह काम इतने शातिराना और योजनाबद्ध तरीके से किया गया कि फिल्म की अप्रत्याशित सफलता के बाद भी यह प्रश्न पीछे छूट गया कि कश्मीरी हिंदुओं की वापसी कब और कैसे होगी? सारी बहस इस पर केंद्रित कर दी गई कि कश्मीरी हिंदुओं के उत्पीडऩ और निष्कासन के लिए कौन-कौन दल जवाबदेह हैं? यदि ऐसे दलों में भाजपा को भी गिना जाए तो क्या इसके आधार पर कश्मीरी हिंदुओं के दमन और घाटी में उनकी वापसी के प्रश्न को नेपथ्य में धकेल दिया जाएगा? वास्तव में ठीक ऐसा ही किया गया और इसी कारण कश्मीरी हिंदू खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। 

हर हाल में अपने एजेंडे को आगे रखना और मूल प्रश्न की अनदेखी करना अथवा उसे नया रूप दे देना या फिर पीडि़त को ही दोषी बताना कोई नया काम नहीं। अब यह काम एक उद्योग का रूप ले चुका है। इस उद्योग में विदेशी शक्तियां भी शामिल रहने लगी हैं, जो योजनाबद्ध तरीके से सक्रिय हो उठती हैं और कुछ सेलेब्रिटी भी अपने साथ जोड़ लेती हैं। यह तथाकथित किसान आंदोलन के समय अच्छे से देखने को मिला था। इस आंदोलन का आम किसानों से कोई लेना-देना नहीं था। यह सरकार को नीचा दिखाने के लिए किसानों की आड़ लेकर और उन्हें गुमराह करके शुरू किया गया आंदोलन था। इसे बल इसलिए मिला, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने अधिकारों का अतिक्रमण करते हुए कृषि कानूनों के अमल पर रोक लगा दी थी। हालांकि यह पहले दिन से स्पष्ट था कि कृषि कानून विरोधी आंदोलन में किसानों के बीच खालिस्तानी तत्व भी सक्रिय हैं, लेकिन कथित किसान नेताओं से लेकर राष्ट्रवादी बताए जाने वाले अमरिंदर सिंह समेत अन्य नेताओं और यहां तक कि सरकार से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने इसकी अनदेखी करने में ही भलाई समझी। इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि बीते दिनों पटियाला हिंसा के मास्टरमाइंड के रूप में जिस खालिस्तानी को गिरफ्तार किया गया, वह कथित किसान आंदोलन के दौरान अपने जत्थे के साथ टीकरी बार्डर पर मौजूद था।

आम लोगों को बंधक बनाने वाले कृषि कानून विरोधी आंदोलन के दौरान जब स्वतंत्रता दिवस पर देश को शर्मसार करने वाली हिंसा की गई तो अपना एजेंडा आगे रखने वालों ने बड़ी चतुराई से ऐसे सवालों के साथ यह शरारतपूर्ण नैरेटिव गढ़ा कि इस उत्पात के पीछे खुद सरकार का हाथ है कि दिल्ली पुलिस ने गोली क्यों नहीं चलाई? ऐसे सवालों से यही साबित करने की कोशिश की गई कि लालकिले में हिंसा के बहाने सरकार बेचारे अन्नदाताओं की आवाज दबाना चाहती है। इस फर्जी नैरेटिव को गढऩे में रिहाना, ग्रेटा थनबर्ग और मिया खलीफा का भी सहारा लिया गया। फिर वह माहौल बना कि अराजकता के आगे सरकार और सुप्रीम कोर्ट, दोनों असहाय दिखे। ये दोनों इसी तरह तब भी दिखे थे, जब शाहीन बाग का धरना जारी था। चूंकि इस धरने पर सुप्रीम कोर्ट के ढुलमुल रवैये से यही संदेश गया कि आंदोलन के नाम पर सड़क पर कब्जा करना जायज है, इसलिए किसान नेताओं ने ठसक के साथ दिल्ली की सड़कों को बाधित किया और उसे जायज भी ठहराया। उनका साथ मीडिया के एक हिस्से ने भी दिया। यही सब हिजाब विवाद के समय भी देखने को मिला।

हिजाब मामला महज स्कूलों में पोशाक के नियम का पालन करने का था, लेकिन उसे उलटकर इस रूप में पेश कर दिया गया कि मुस्लिम लड़कियों को साजिश के तहत शिक्षा से वंचित किया जा रहा है। इस फेक नैरेटिव में असदुद्दीन औवेसी से लेकर मीडिया के एक हिस्से के सुर बिल्कुल एक जैसे रहे-और वह भी तब, जब कनार्टक हाई कोर्ट ने स्कूलों में हिजाब पर पाबंदी को सही ठहराया। यह फैसला सुनाने वाले तीन जजों में एक मुस्लिम महिला जज भी थीं। जैसे ही यह खबर आई कि जजों को मारने की धमकी दी गई है, वैसे ही नए नैरिटव की तलाश की जाने लगी और वह तब पूरी हो गई कि जब रामनवमी पर देश के कई शहरों और फिर हनुमान जन्मोत्सव पर दिल्ली के जहांगीरपुरी में सांप्रदायिक हिंसा हुई।

यह बिल्कुल साफ है कि किसी एक समुदाय के धार्मिक स्थलों से लाउडस्पीकर हटाने या उनकी आवाज नियंत्रित करने को नहीं कहा जा रहा, लेकिन कुछ एजेंडाधारी लोग ठीक यही बता रहे हैं। इन एजेंडाधारियों का नया हथियार समान नागरिक संहिता भी बन गई है। साधारण समझ रखने वाला व्यक्ति भी यह जानता होगा कि यदि समान नागरिक संहिता बनती है तो उसके दायरे में सभी समुदाय के लोग आएंगे, लेकिन फर्जी नैरेटिव गढऩे और अपना शरारती एजेंडा चलाने वाले यही साबित करने में लगे हैं कि इसके निशाने पर केवल मुस्लिम समुदाय होगा।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)


Comments